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ملحوظات عن القصيدة:
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| قمْ منَ الجرح ِ رياحاً |
| تتهجَّى |
| قصصَ الماء ِ |
| بأوتار ِ الشَّجنْ |
| قمْ مِن الصَّمتِ ظلالاً |
| تتلاقى |
| ولها |
| مِنْ عالَمِ الأجمل ِ |
| لو تعلمُ |
| فنْ |
| لا تكنْ |
| وجهَ ضياع ٍ |
| يتباكى |
| عندما |
| يشتبكُ الرَّسمُ |
| بألوان ِ المحنْ |
| واسأل ِ الآتينَ |
| مِن عطر ِ الحكايا |
| ذلك الفجرُ |
| لمَنْ؟ |
| واغرس ِ النفسَ |
| على كلِّ القراءاتِ |
| خيولاً تتحدَّى |
| وخطاها |
| لم يُقدَّرْ بثمنْ |
| أيُّها الآتي |
| إلى كلِّ صلاةٍ تتعافى |
| أيُّ ليل ٍ |
| لم يذبْ |
| فيكَ ضياءً |
| فهوَ في كلِّ التفاصيل ِ |
| دَرَنْ |
| أيُّها القادمُ |
| مِنْ أصداء ِ عزِّ |
| جالَ في |
| مصباح ِ رُوح ٍ |
| يتهجَّى |
| كلَّ تأريخ ِ البدنْ |
| وعلى أجمل ِ عزٍّ |
| نهضتْ منهُ |
| مواويلُ السُّننْ |
| أيُّ ذلٍّ |
| لا يُعيدُ الحقَّ ضوءً |
| يتتالى |
| فهوَ في نسختِهِ الأولى |
| وفي الأخرى |
| كفنْ |
| إنَّ للموتِ قراءاتِ |
| مرايا |
| مَنْ يعشْ |
| تكرار جهل ٍ |
| فهوَ في معولِهِ الدَّامي |
| سباقٌ |
| كلُّ مَنْ فازوا لديهِ |
| فهمُ الآنَ |
| عفنْ |
| ذلكَ الهدمُ تبارى |
| وهوَ في |
| محرقةِ الظُّلم ِ نقاطٌ |
| لحروفٍ |
| خُلِقتْ كلُّ خلاياها |
| فتنْ |
| ذلكَ الوحشُ التتاريُّ |
| تمادى |
| وتهاوى |
| وهوَ لا يُدركُ |
| في الدُّرِّ صلاةً |
| تتسامى |
| بينَ أنفاس ِ الوطنْ |