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ملحوظات عن القصيدة:
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| سَاهِمُ الوَجهِ |
| مِنَ الحزنِ سَطَعْ |
| يَشربُ الصَبرَ |
| وَهَلْ عَنهُ انقَطَعْ؟! |
| غَائِرُ العينِ |
| يدَاوي جرحهُ |
| سَاهر الليلِ |
| يُجافي المضطَجَعْ |
| مُرهَقُ الجسمِ |
| إذَا لامَستهُ |
| يَكتُمُ الآهاتِ |
| يَغتالُ الوَجَعْ |
| هُوَ كَالسيفِ |
| إذا ما سَلَّهُ |
| فارسٌ في الليلِ |
| إِنْ هُزَّ لَمَعْ |
| مَسّهُ الوَجدُ |
| فَأبكاهُ الهوى |
| عَاشقٌ صَبٌّ |
| عَليلٌ ما هَجَعْ |
| صَادِقُ الشوقِ |
| نبيلٌ في الهوى |
| طَيبُ القلبِ |
| بسيطٌ فَانخَدَعْ!! |
| نَظرَةٌ منها كَخَمرٍ |
| أَسكَرَتْ |
| بِهِ مَنْ كانَ تَقِيّاً |
| فَانصَدَعْ!! |
| لَمْ يَعُدْ يَسمَعُ |
| إِلاّ صَوتها |
| وَهَواها |
| مثل غيماتِ القَزَعْ * |
| غَادَةٌ تَعبَثُ |
| فِي ظلِّ الهَوى |
| بِقُلوبٍ |
| مَنْ تُرى مِنها رَجَعْ؟! |
| وَيحَ قلبٍ |
| لَمْ يَعُدْ ملكاً لَهُ |
| هَجَرَ الجسمَ |
| إِليها واندَفَعْ!! |
| جَثَمَ الشوق.. |
| ولمْ يَدرِ الفَتى |
| إِنَّهُ الحبُّ |
| فَسُحقَاً قَدْ وَقَعْ!! |
| فَاحتَوتهُ |
| وَرَمَتْ مِنْ حولهِ |
| كٌل سحر الأرضِ |
| فَازدادَ الوَلعْ |
| مُتعَةٌ حَرّى |
| تُدَاوي جرحَهُ |
| وَرِضَابٌ فِيهِ |
| مِنهَا قَدْ نَبَعْ!! |
| إِنّها الحرباء |
| تخفي شكلها |
| تَجمَعُ الشَوقَ |
| وَتُرضي مَنْ دَفَعْ!! |
| قَدْ شَكا مِنها |
| وَمِنْ طَعْناتها |
| تَوأمُ الشيطانِ .. |
| مِنها قَدْ رَضَعْ |
| طَبعُها الغدر |
| ولا عَهدَ لَها |
| فَمُهَا شَهدٌ |
| بِهِ السُمُّ نَقَعْ |
| فَرَمَتهُ |
| بَعدَما ضَاقَتْ بهِ |
| قَلبُها اليَومَ |
| لِثانٍ اتَّسَعْ!! |
| لا يُداوي الجُرحَ |
| إلاّ أَهله |
| لا يَعَاف اللهو |
| إلاّ مَنْ قَنَعْ |
| لا تَلُوموهُ |
| فَيكفي مَا جَرَى |
| أَيُّ نُصحٍ في الهوى |
| يَوماً نَفَعْ؟!! |
| شعر فارس الهيتي |
| * القزع هو الغيم الأبيض المتفرق في السماء |