
|
ملحوظات عن القصيدة:
بريدك الإلكتروني - غير إلزامي - حتى نتمكن من الرد عليك
ادخل الكود التالي:
انتظر إرسال البلاغ...
|

| كلُّ مَنْ قدْ فاضَ ظلماً |
| فهو لا يفقهُ |
| عطرَ الياسمينْ |
| وهوَ لا يُدركُ |
| كيف الفجرُ في الفجر ِ |
| يُصلِّي |
| في جميع ِ المؤمنينْ |
| وهوَ لا يُتقِنُ دَوْراً |
| بينَ أدوار ِ |
| مرايا المُبصرينْ |
| والذي |
| في كفِّهِ البيضاء ِ |
| حقٌّ يتتالى |
| فمحالٌ يتهاوى |
| بين أيدي الظالمينْ |
| ومحالٌ |
| صوتُهُ الهادرُ |
| يُرْمَى |
| قطعاً خرساءَ |
| تُسبى |
| بينَ أمواج ِ السِّنينْ |
| ومحالٌ |
| ينتهي |
| أجملُ ما فيهِ |
| غباراً |
| لا يُنادي |
| البقعة الخضراءَ |
| قومي |
| مِنْ فنون ِ الموتِ |
| ظلاً |
| لرجال ٍ صالحينْ |
| انهضي |
| مِنْ وجع ِ الهمِّ |
| سطوراً |
| تفتحُ النهرََ |
| حكايا |
| مِنْ حكايا القادمينْ |
| خلفَ تلكَ النقطةِ النوراء ِ |
| ليلٌ |
| كانَ ضمنَ المُبحرينْ |
| وعلى كفِّيْهِ |
| سوطٌ |
| وانكساراتٌ لشمع ٍ |
| يتهجَّى |
| وبقايا هاربينْ |
| ها هنا |
| مِن وجَع ِ القيدِ |
| صراخٌ |
| بينَ أكواخ الأنينْ |
| كلُّ مَنْ |
| قد عاشَ في الذلِّ |
| فضاءً أبديَّاً |
| لمْ يعُدْ في لغةِ النيزكِ |
| غيثاً |
| يُقلبُ البيداءَ |
| بستاناً |
| لكلِّ الجائعينْ |
| إنني أُقسمُ |
| ليلاً و صباحاً |
| ذلك الغيثُ الرَّماديُّ |
| تلاشى |
| وهوَ لا يفقهُ |
| عطرَ الياسمينْ |