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ملحوظات عن القصيدة:
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| ضيف |
| إنّه يطرقُ البابْ |
| حيّوه .. حيّوهُ |
| قدْ جاءكُم من أقَاصِي الغيَابْ |
| افتحوا البابْ |
| ثُمّ أقيموا لهُ فِي صدورِ المجَالسِ |
| مُتَّكَأ وشرابْ |
| إنّه يطرقُ البابْ |
| حيّوه .. حيّوهُ |
| قدْ أمّكُمْ |
| وجلا نور طلعتِهِ همَّكُمْ |
| فافتحوا البابْ |
| ثُمّ أقيموا لهُ فِي صدورِ المجَالسِ |
| مُتَّكَأ وشرابْ |
| وفَاكِهة وكتابْ |
| حالة |
| أصبحتَ ريّاناً |
| فأشعلتَ الحريقْ |
| وخرجتَ مبتسماً |
| لضوضاء الطريقْ |
| شاعر |
| لم يبقْ من خيلِ الفتوحِ |
| سوى الأعنّةِ والسُّروجْ |
| فأنا هُنا، |
| شطرٌ بلا معنى |
| وقافية لجوجْ |
| وحده |
| وحدهُ البابليُّ استفَاقْ |
| وحدهُ البابليّ |
| ومضَى في ليالِ المحَاقْ |
| وحدهُ البابليّ |
| ليتهُ لم يَكُنْ وحدهُ |
| ليتهُ لم يَكُنْ بابليّاً |
| ويا ليتهُ لم يكُنْ كَوكبَاً |
| في سماءِ العِرَاقْ |
| صلاة |
| اخلعْ هُنَا نعليك |
| ثُمّ انهض على قدم الثباتْ |
| واصعد إلى العتباتْ |
| وارفع يديك إلى السماءِ |
| قبّل نوافذه |
| ومرّ على صراط البينات البينات. |
