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ملحوظات عن القصيدة:
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| هل تعلم السمراءُ |
| أن حديثها |
| قد أشعلَ الوجدَ المُرابضَ |
| في دمي |
| فتفتحتْ مليونُ سنبلة ٍ |
| أضاءت مهجتي |
| وتكاثر الودْقُ المتيمُ |
| فى سماءِ ودادي |
| هي همسة ٌ بالهاتفِ الجوَّال ِ |
| أيقظتْ الرؤى |
| ورسالة ٌ بعثتْ |
| طيورَ رمادي |
| من أيِّ عاصمة ٍ لجرح ٍ قادم ٍ |
| قد جاءَ سحركُ |
| كى أعودَ لجلسة ٍ |
| في بهو عينين استثارا |
| صبوتي و مِدادي |
| وجهٌ بريءٌ |
| فوق قدٍّ مائِس ٍ |
| قد أيقظ النيران بين جوانحي |
| فرجعت صبَّاً |
| أطرق الأبوابَ |
| أسأل عنه أطيافا |
| تزيد سهادي |
| هل أدركت |
| ما سوف ينشدهُ الهَزَارُ |
| فحين ألقتْ |
| فوق عمرى زهرة ً |
| وتبسَّمتْ |
| أحسستُ شيئا |
| داخل ألأعماق º يبكي فرحة ً |
| وتعطل الإدراك ُ |
| ساعة دهشتي ورشادي |
| سمراءُ |
| ماذا قد يدور بقلب فاتنة ٍ |
| سباني حسنُها |
| أحببتني؟! |
| أم أن وعدًا للفَرَاشِ بأن يصاحبَ |
| في ضمير الحب |
| ضوءَ الشمعة ِالكانت |
| تقضُّ مِهادي |
| لا تنكري الإشراقَ في شعري |
| فتلك عواطفي |
| تحنو عليكِ كقطة ٍ |
| تقتات من أورادي |
| أجْهدتِني |
| بالوجد حتى أنني |
| ما عدتُ أسمعُ غير صوتِك |
| والوجوهُ تشابهتْ |
| وظللتِ وحدكِ |
| لا يخالطك الدُّخانُ |
| نقية ً |
| كتفتح ِالعبَّادِ |
| ثاءُ الثريا |
| أدخلتني في بهاء حضورها |
| والرَّاءُ ترمي |
| بالسهام فؤادي |
| والياءُ تحنو |
| بالعبير علي الفتي |
| ألفٌ تدغدغ ُ |
| مضجعي و وسادي |
| يا ألفَ فاتنةٍ |
| وألفَ قصيدة ٍ |
| وجلاءَ روحي |
| واختصارَ رقادي |
| جودي ببعض ٍ |
| من سَناكِ |
| فإنني |
| طيرٌ ظميءٌ |
| للضياءِ الشادي |
| عيناكِ دُنيا |
| لا أعيشُ بدونِها |
| وبهاكِ مختصرٌ |
| لسحر ِ بلادي |