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ملحوظات عن القصيدة:
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| يا أيها الجبل ُ الذى |
| لم تحنه ريحٌ |
| ولا عصفت به |
| أيدى المغول ِ |
| برغم ما فى العمر |
| من طعنات جائر ْ |
| *** |
| ستون عامًا |
| فى النضال ِ |
| وأنت ثائرْ |
| *** |
| ستون صبرًا |
| فى نزيف العمر |
| والزيتونُ يبكي |
| والحراب ُ تجمعت |
| والجرح غائرْ |
| *** |
| يا أيها الحلم المثابرْ |
| زيتونة ٌ عيناك َ |
| والقدس الذى |
| صلى ببؤبؤ ناظريكَ |
| وأنتَ فى محراب ِ طهركَ |
| عاشقاً |
| صوت المآذن ِ |
| والكنائس ِ لم يزلْ |
| يرتاح فى أنغام ِ طائرْ |
| *** |
| هل يا ترى فرغتْ |
| حقائبكَ المليئة بالحكايا |
| عن عيون صبية ٍ |
| أسرَ الغزاةُ سماءها |
| فكوا ضفائرها |
| وعين الكون تشهد |
| والعشائر |
| *** |
| قد كنتَ فارسها الذى |
| ركبَ الصعابَ |
| وراح يطلب ُ |
| ثأر هذى الأرض ِ |
| ثأر العرض ِ |
| والأحداث لا تخفى لناظرْ |
| *** |
| الآن ترقد يا جبين الشمس ِ |
| كى ترتاحَ |
| فى حضن الأمومة |
| بعدما |
| هزم الردى |
| أعتى الكواسرْ |
| *** |
| وجهٌ ألفنا سمتهُ |
| جملٌ عشقنا صبرهُ |
| سيفٌ عرفنا ثأرهُ |
| ما كان يومًا خائنًا |
| أو فاقد الإحساس ِ |
| بائرْ |
| *** |
| ياأيها الصقر المهاجرْ |
| يا من تقاسمنا |
| رغيف َ الحزن ِ |
| تسكن فى القلوب ِ |
| وفى الحناجرْ |
| *** |
| ستعيش فى وجداننا |
| رمزاً لكل بطولةٍ |
| أملا ً لكل أسيرة ٍ |
| تشتاق يوماً |
| كالطيور |
| إلى البيادرْ |
| *** |
| سيكونُ قبركَ كعبة ً |
| للسائرينَ |
| على طريق نضالهمْ |
| والعابرينَ |
| على نصال جروحهمْ |
| والحالمينَ |
| كما الأزاهرْ |
| *** |
| أديتَ دوركَ فاسترحْ |
| إنَّا على حمل ِ البطولةِ قادرونَ |
| ولن يكونَ سوى الذى |
| ترجوهُ من |
| شعبٍ أبيٍّ |
| فى خضم الحربِ قادرْ |
| *** |
| إنَّا لقومٌ، |
| لا تضيع حقوقنا |
| مهما انكسرنا |
| أو مضى |
| عهدٌ بعيدٌ |
| ما به أبدًا |
| نفاخرْ |
| *** |
| إنَّا لقومٌ |
| يعرفون طريقهمْ |
| والأرضُ |
| مثل العرض ِ |
| لن تعطى لغادرْ |
| *** |
| إن مات يومًا |
| ثائرٌ من بيننا |
| سيعيشُ فى جلبابهِ |
| مليون ثائر ْ! |
| *** |