تفجرت من مسا البارح براكيني | |
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| والحزن عشٍ تهادى فيه عصفوره |
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الليل طفلٍ يغني في شراييني | |
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والصبح كهلٍ تعثّر ب اول سنيني | |
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| عصاه شمسٍ تطيح ليا انتهى دوره |
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والشارع الممتلي باخطاء عشريني | |
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| اقرى رصيفه ولا تغريني سطوره |
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من علم اللوحه وفرشة تلاويني | |
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| تستنطق الصمت وتفزز به شعوره |
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ويضج كل المكان بصرختي: ويني؟ | |
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| وتمر الايام في ذكراي مذعوره |
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يا تاركتني غريبٍ في عناويني | |
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| الصبح مدري علامه ينكره نوره |
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من يوم قلتي بسافر شلتها عيني | |
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| وبروزت قلبي ووجهك صار له صوره |
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في كل نبضه أحس انك تناديني | |
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| وامد يدي لقلبي واقلع جذوره |
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كله علشان اشوفك منّي وفيني | |
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| واخلي الشوق يصعد مثل نافوره |
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وارتب المفردات وتكتب يديني | |
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| الحب ثروه متى ما صار به ثوره |
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البعد حاجز يوقف بينك وبيني | |
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| ابكسره واجعل الريضان ممطوره |
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غيبي وانا باكتبك داخل دواويني | |
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| واهديك عمري وكلٍ هو وميسوره |
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تطفي سما نجد لامنك تركتيني | |
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| وتنوّر الديره اللي فيك مغروره |
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واذا اتصلتي وقلتي وينك وويني | |
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| باقول جالس هنا جنبك يا سنيوره |
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ليتك عرفتي غيابك ويش يهديني | |
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| يهديني الشوق في غيبتك وحضوره |
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واسرق بعض ذكرياتٍ منك تكفيني | |
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| وعشٍ من الحزن توه طار عصفوره |
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