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ملحوظات عن القصيدة:
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| بمقدارِ الهوى يتحرَّكُ الفضاء |
| هذا فضاءُ الحبِّ |
| يسكنُ أضلعي |
| مُدُناً |
| تُزاولُ حُرفةَ الأشواق ِ |
| وعلى تفاصيل ِ الجَمَال ِ |
| نسجتُ مِنْ |
| عينيكِ |
| سيلَ العاشق ِ الخلاق ِ |
| وحملتُ فيكِ |
| الأرضَ |
| طينة َ آدم ٍ |
| فتلوتُها عطراً |
| وترجمة ً لخير ِ وفاق ِ |
| وعلى مُحيطِكِ |
| كلُّ أجزائي بهِ |
| هلْ تُبتَلى |
| بتشتُّتِ و شِقاق ِ |
| وأنا بطيفِكِ |
| قدْ قلبتُ المستحيلَ |
| كواكباً |
| بدم ِ الأذان ِ |
| وبهجةِ المُشتاق ِ |
| هذا جميعُكِ |
| في جميعي ذائبٌ |
| فسكبتُ فيهِ |
| حرائقَ العُشَّاق ِ |
| وأنا هنا |
| لخَّصتُ كلَّكِ |
| في ضلوعي كلِّها |
| أسطورة ٌ |
| بفواصلي و سياقي |
| والواقفونَ |
| أمامَ ظلِّكِ |
| عالِمٌ مُتنسِّكٌ |
| وصداهُ فيكِ |
| حدائقي و رفاقي |
| كيفَ التخلُّصُ |
| مِنْ تفاصيل ِ الهوى |
| وخريطة ُ النبضات ِ |
| قدْ خُتِمَتْ بدون ِ تلاق ِ |
| أينَ اللِّقاءُ |
| إذا طريقُكِ في دمي |
| لمْ يختمرْ بتودُّدي |
| وعِناقي |
| كيفَ الفراقُ |
| وظلُّكِ العطشانُ |
| مربوطٌ بنار ِ فراقي |
| وتصوُّفي |
| بجميع ِ حالاتِ الهوى |
| صمتٌ |
| يضجُّ برحلةِ استنطاق ِ |
| وأنا و أنتِ |
| جزيرتان ِ بنقطةٍ |
| سطعتْ |
| برائعةٍ مِنَ الأخلاق ِ |
| ما أجملَ الأحضان ِ |
| في لغةِ الشذا |
| وتشابُكِ الأعماق ِ |
| بالأعماق ِ |
| ما أروعَ النهريْن ِ |
| حينَ توحَّدا |
| في ثغرِ وردٍ ساحر ٍ |
| رقراق ِ |
| هذا فضاءُ الحبُّ |
| أصبحَ ها هنا |
| رئة ً |
| لأسطر ِ هذهِ الأوراق ِ |