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ملحوظات عن القصيدة:
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| يُحكى أنّ الفلاح الشاعرْ |
| قد زرع ببستان حياتهْ |
| وردةْ |
| وتعهدها يرويها من دفقات القلبْ |
| شعراً ومودةْ |
| كان إذا نهرته الدنيا |
| يدعو أن يغمض عينيه عن الأحزانِ |
| وأن يرتد إليه الطرف ليبصر قدام عيونهْ |
| أجمل وردةْ |
| فيناجيها |
| يحكي عن أحزان فؤاده |
| يبكي .. تبكي .. فيرى دمعَهْ |
| يسقط من عينيّ تلك الوردةْ |
| ظلت تكبر في عينيه حتى صارت كلَّ الدنيا عندهْ |
| ذات صباحٍ |
| ذهب الفلاح لينقل وردتَه بين جفون الراحةِ |
| كي يغرسها في بستان فؤادهْ |
| فانغرست منها في إصبعه شوكةْ |
| كتم الآهة حين رأي بين ضباب الغيب القادم سعدَهْ |
| ذهب إليها بعد زمانٍ |
| بثّ الشكوى |
| غضبت جداً |
| إذ كيف له أن يغضب من فعل الشوكة ما دامت منها! |
| كتم دموعَه |
| كي يرضيها |
| رفضت كلَّ دروب الصلحِ |
| إلا صمتهْ |
| إلا بُعدهْ |
| وصلت في أعماق القلب الشوكةْ |
| فبكى وحدهْ |