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ملحوظات عن القصيدة:
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| غريبين صرنا |
| وتاهت خطانا |
| وصار فؤادي شظايا شظايا |
| وشوق المآقي |
| أذاب المرايا |
| تهاوت ظلالي |
| وصمتي انكسرْ |
| فكيف النجوم غدت في سمايَ |
| تعاين دمعي بكل الزوايا |
| أسيرة وجدٍ سرى في دمايا |
| وعطر قلبي فزالت أسايَ |
| ومن ثم عاد ليمحو الأثرْ |
| بقيت شجيّ الفؤاد أعاني |
| واحمل طيفا سرى في كياني |
| إذا ما أتاني |
| سأغدو ضحيةَ وجدِ الدهَر |
| هربت هربت لكي لا اراكَ |
| وتأبى عيونيَ تركَ ثراكَ |
| فتبكي الليالي لذكر شذاك |
| فكم تتمنى |
| تمر كطيفٍ بجفنِ السحرْ |
| بعدت بعدت و لكن هواك |
| يلح يلج لهمسك ذاك |
| تركت المكان و لكن رؤاك |
| بعيني تشع فأهوي فداك |
| فأغمض عيني |
| ألاقي يديك |
| تنادي تعالي مللت السفرْ |
| غريبين صرنا |
| نسينا الحكايا |
| وماتت بقلبي أغاني الصبايا |
| فما عاد دمعي |
| يداوي الحنايا |
| تحطم قلبي |
| ودمع الوترْ |
| غريبين صرنا |
| كما ما التقينا مكاناً |
| وقلنا كلاماً و ذبنا بهمس البصرْ |