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ملحوظات عن القصيدة:
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| وُلِدْتُ هنا.. |
| لا بل إلى النورِ أقربُ |
| ولي نخلةٌ أمٌّ |
| ولي غيمةٌ أبُ |
| تُطِلُّ سماءُ اللهِ |
| عبرَ نوافذي |
| فتُبصرُني في المهدِ |
| بالضوءِ ألعبُ |
| لغرفتيَ الزرقاءِ |
| خمسةُ أوجهٍ |
| وعنوانُ بيتٍ |
| في الرسائلِ يُكْتَبُ |
| وأسماؤنا في الريحِ |
| طيُّ حقيبةٍ |
| وراءَ أبي الجوَّابِ |
| تكبو |
| وتتعبُ |
| وأدمعُ أمٍّ بالرحيلِ ترمَّلَتْ |
| وأفراخُ حزنٍ.. |
| باسْمِه الغضِّ تصخبُ |
| لهم زغبٌ كالحُلمِ هَشٌّ |
| وكلَّما.. |
| نما الريشُ شيئا |
| في خُطاه توثَّبوا.. |
| كأنَّ لهذا البيتِ |
| بيتًا مسافرا |
| فحيثُ تدورُ الأرضُ بالأبِ |
| يذهبُ |
| دخلتُ مقامَ الليلِ |
| خبَّأْتُ نجمةً |
| بجيبِ الأساطيرِ التي |
| كنتُ أًصحبُ |
| أنا سندبادُ الحيِّ |
| بَحْرِي دروبُه |
| وأشرعتي حُلمي |
| وصوتي مركبُ |
| أُسِرُّ لأشجارِ الرصيفِ بوجهتي |
| ففي كلِّ دربٍ لي |
| إذا سرتُ موكبُ |
| أماميَ.. |
| أسرابُ المصابيحِ |
| جانبي.. |
| نوافذُ شتَّى |
| كلُّها بي تُرحِّبُ |
| وتدري بناتُ الحيِّ |
| أنِّي فارسٌ |
| ويسألْنَ.. |
| مَنْ منَّا التي سوفَ يرغبُ |
| ويخطفُها يوما |
| إلى قصرِ قلبِه |
| وأيَّ حصانٍ |
| خلفه سوف تركبُ |
| ولم أكُ وحدي.. |
| كانَ إخوةُ يوسفٍ |
| وذئبُ قصيدٍ |
| في دمي يتعقَّبُ |
| وأصحابُ دربٍ |
| ليسَ لي فيه |
| صاحبٌ |
| فحيث التقى ظلِّي بهم |
| يتهيَّبُ |
| زحامٌ من الصلصالِ |
| دونَ ملامحٍ |
| وحشدٌ من الأشباهِ |
| ينأى |
| ويقربُ |
| كأنَّ وجوهَ العابرينَ |
| جريدةٌ |
| ووجهيَ أُمِّيٌّ |
| بها يتعجَّبُ |
| تَتَلْمَذْتُ للصَّحْراءِ |
| أتممتُ سِفرَها |
| ولي في حواشي المَتْنِ |
| شَرْحٌ مُحَجَّبُ |
| وضاقتْ عليَّ الأبجديَّاتُ |
| حيرةً |
| فحطَّ بصوتي |
| نجمتانِ |
| وكوكبُ |
| إلى أيِّ تيهٍ |
| سوفَ تُفْضِي قصيدتي |
| ومِنْ أيِّ غيبٍ |
| طفلُها سوفَ يشربُ |
| وحيدٌ على بابِ السماءِ |
| ووجهُه.. |
| إلى كلِّ برقٍ |
| شاخصٌ |
| مُترقِّبُ |
| تَخَطَّفَه جِنُّ الكلامِ |
| ولم يَعُدْ |
| فصارَ شروقًا |
| لا يُواريهِ مغربُ. |