قدْ نظرنا في انكسارٍ للسماءِ | |
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| وذكرنا كمْ تعبنا في المساءِ |
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كمْ ضحكنا كي نداري كم بكينا | |
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| وسئمنا من هروبٍ وادِّعاءِ! |
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يا سمائي كيفَ أشكو حينَ صَحبي | |
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| قدْ تخلّوا حينَ كُنتُ في ابتلاءِ؟؟ |
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كيفَ أنجو الآن وحدي لستُ أدري؟ | |
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| هل سأنجو حينَ أُنفى في عراءِ؟! |
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صرتُ أحيا بل غريقًا في دموعي | |
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| والنجومُ حينَ أشكو هم عزائي! |
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لستُ أبكي كيفَ أبكي؟ لستُ أدري! | |
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| كُلُّ شيءٍ كانَ حلوًا صارَ دائي |
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يا سمائي ليسَ عندي غيرَ كفًّ | |
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| ساعديني واحملي عنّي دعائي |
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كيفَ أنسى حينَ صبحي فيهِ كَدٌّ | |
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| ومسائي باتَ ذكرى عن بلائي؟ |
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كيف أنسي حين دمعي خان قلبي | |
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| ورماني لابتسامٍ من دماءِ! |
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ساعدني حين أشكو مرَّ حالي | |
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آهِ يا دنيا كأنَّ الكونَ يأبى | |
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| أن أرى وجهي ضحوكًا في ارتواءِ! |
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صارَ حزني سمتُ قلبي غير أني | |
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| عشتُ أبكي خلفَ ثغري في عناءِ |
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صرتُ صخرًا بعدَ ضعفٍ لا يبالي | |
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| ليس يرجو أي شيءٍ أو يُرائي |
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عشتُ فردًا رغم جمعٍ عاشَ حولي | |
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| خوفَ جرحٍ فيهِ حزني وشقائي |
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صرتُ وحدي لا حبيبٌ لا رفيقٌ | |
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| ضاقَ كوني بينَ أرضي وسمائي |
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