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ملحوظات عن القصيدة:
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| ضِقتُ! |
| في داخلي صراعٌ موَشَّى |
| كلُّما خلتُهُ خفيًّا .. تفشَّى! |
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| آهِ .. |
| منذُ احتدمتُ شيئًا .. فشيئًا |
| صرتُ أبدو على مرايايَ وَحشا! |
| غرَّني |
| في المكانِ صمتٌ طويلٌ |
| فملأتُ الجهات رسمًا ونَقشا! |
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| ريشتي حُرقةٌ |
| ولَوحيَ ماءٌ |
| ويَدي تحمِلُ القصائدَ نَعشا! |
| هكذا! |
| فجأةً تمرَّدَ حُزني |
| وأبى أن يُعانقَ الرِّمشُ رمشا! |
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| وقَسا |
| سادنُ الخيالِ .. فأمسى |
| خافقي مُرغَمًا يواجهُ جَيشا! |
| غاصَ بي |
| شاعرٌ .. كأنَّ خُطاهُ |
| فوقَ قيثارةِ الحياةِ تمشَّى! |
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| كُلُّ |
| ما فيهِ ذائبٌ .. فلماذا |
| دجلةُ الرُّوحِ لم تزلْ فيهِ عَطشى؟! |
| بخفيفٍ |
| من التَّفاعيلِ يجري |
| بعصيٍّ من القوافي توشَّى! |
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| كانَ |
| صِرفَ الخيالِ .. جَمَّ المعاني |
| فإذنْ .. كيفَ أصبحَ اليومَ هَشَّا؟! |
| ضَمَّ |
| في ساعدَيهِ حفنةَ حِبرٍ |
| وبنى للُّغاتِ والحرفِ عَرشا .. |
| فإذا |
| فاتحَ الرُّؤى بحديثٍ |
| أترعَ الكأسَ بالحماقاتِ .. طَيشا! |
| هوَ |
| طيرٌ .. على حُقولِ التَّمنِّي |
| راودَ الغصنَ كي يؤثِّثَ عُشَّا! |
| لم يزلْ |
| منذُ أن توارى بظلٍّ |
| يعبرُ البيدَ في غشاواتِ .. أعْشى! |