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أحبك |
هذا اعترافي الأخيرْ |
وقلبي |
ينادي عليك |
ويرجو الكثيرْ |
فأنت الأنوثة |
أنت الحنان |
ومثلك ليس له من نظيرْ |
أزين قلبي |
بشوقي إليك |
فشوقي إليك |
لوجه غرامي ينيرْ |
وصوتك يجذبني |
ويعيد اخضرار حياتي |
لصوتك عينان |
صوتك ليس ضريرْ |
أحبك |
حتى نهاية عمري |
ولا ينقص الحب في داخلي |
بل يزيد تدفقه |
في كياني |
فيدهش موج البحورْ |
أتيتِ من القدر المرتجى |
مثلما أتمنى |
فغيرت لي فكرتي |
عن وجودي |
وعن كل شيء |
وما عاد حزني |
لنبضي يديرْ |
أحبك |
يا هبة الله لي |
من سماء المشاعر |
يا قمة الحسن |
يا جنتي |
وجزاء انتظاري الكبيرْ |
بمرآكِ تفرح |
أعماق عمقي |
وتجري إليك |
كطفل صغيرْ |
فأشهد أني أحبك |
والحب يسقي الشعورْ |
كأني بدونك |
لا شيء |
أو لكأني |
أذوق عذابي |
على شاطيء الوهم |
والصمت يجلدني |
بالظلام المريرْ |
بمرآك |
أصبح كالحلم |
أزرع ورداً |
بحقل الخيال |
وأحدو |
جمال المصيرْ |
لعينيك وجدي |
ووجدي نضيرْ |
فكلي يحبك |
والحب نورْ |
أراك |
فأحسد عيني |
وأسأل نفسي |
لماذا |
وراء خطاك |
تسير الزهورْ |
فيأتي الشذى |
كي يجيب |
وتسمع منه الإجابة |
كل البدورْ |
يقول الشذى في هيام ٍ |
أنترك حسناء |
تنطق روعتها |
بضياء وفيرْ |
أنترك |
من هام في حبها |
سائر الدهشات |
وكل الدهورْ |
وكيف بقلبي |
أيترك حبك |
لا لن يكون |
ومن أجل حبك |
سوف أهد الصعاب |
وأحضر ما تشتهين |
وأقذف طوق نجاة |
لأيدى السرورْ |
أنا صادقٌ |
في كلامي |
وصدقي |
له المعجزات تزورْ |
أحبك |
حتى أكاد |
من الصبوات أطيرْ |
تمرين مثل الفراشة |
عيني تتابع خطوك |
في شغفٍ جارفٍ |
خجلي لن يدوم |
على خجلي |
لسوف أثورْ |
لأقطف قلبك |
من بين حضن سماواته |
وأذوب برفقة أنثى |
وذوبي سيبقى لما بي سفيرْ |
أراك |
فلا يهدأ الوله المستبد |
قوامك يزرعني |
في اشتعالي |
فأحصد ما لا أظن |
من الخفقات |
ولا أتحاشى الذي بي يدورْ |
أحبك |
لا تعجبي |
من جنوني بحبك |
إني بحبك |
أربح تلك الحياة |
وبيني وبين وفائى |
لسوف أظل |
أمد الجسورْ |