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جمالك |
هل سيسقيني؟ |
أنا الظمآن |
منذ ولدتُ |
والأحلام تغريني |
وفي شفتيك نهر ٌ |
كم يبوح |
بما يتوج هامة الإحساس |
والكلمات منك تغزوني |
وتسكن في شراييني |
خيالي |
كم يؤرقني |
بما أهوى |
بما أخشى |
وأشواقي بأعماقي تناغيني |
إليك القلب |
كم يجري |
ويرجو أن تذودي |
عن بلابله |
ويرجو أن تحبيني |
عيون الريح تبصرني |
أنقب في اشتعالاتي |
وأبحث عن كنوز ٍ |
لا تموت |
ومستهام الطير |
يحدوني لها فرحاً |
لأهديها لحسنك |
إن حسنك |
كم يعلمني |
وكم من ربوة الإلهام يعطيني |
وفي ذاتي |
يموج تأججي |
كمتاهةٍ كبرى |
ولا أدري |
أحبي قصة ٌ |
ستكون ذكري |
كالتي سبقتْ |
لأبقى في عذاباتي أشوّن |
أم سيسعدني |
بما من جنة الأحلام يهديني؟؟ |
أنا في حيرة ٍ حبلى |
بألف تطلع ٍ |
فمتى الذي أرجو يناديني |
أريدك |
كم أريدك |
والأماني هل تحابيني |
ومهما كان |
حبي لن يموت |
وإن توجّد |
من تباريح الفراق |
فمن يد الذكرى أداويني |
فإني عشت |
بين هواك |
ما يكفي |
لصنع مسافة ٍ |
فيها ألاقيني |