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ملحوظات عن القصيدة:
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| هي حفنة من سماء ٍ |
| وأنا .. |
| سجدة الروح ِ |
| على بابها |
| ........ |
| حين خبأك الوعد |
| دل عليك ِ غبار ملائكة طيبين |
| وحين تكشفت ِ .. والنهر |
| صلى على آية الماء |
| عشب بتول |
| .... |
| من أنزل الليل َ |
| عن سرجه ِ |
| غير عينيك ِ |
| وأغمد الصبح في لؤلؤات الحنين |
| سواك ِ...... |
| ........ |
| ......... .. |
| هي الدالية * |
| ينحني النهر بين يديها |
| فتعلنه: سادنا ً للغمام ِ |
| وحين أغار .. |
| واحتج شيئا ً قليلا |
| يهب غزال من الكحل |
| يحمل أختامها |
| ويتوجني |
| في برحاء هواها |
| .. قتيلا |
| .... |
| بعافية القلب |
| أو صولجان الحنين |
| دخلت المرايا التي شكلتك ِ |
| فدانت لي الأرض: سيدة |
| والنساء: خواتم |
| وحين خدشت البهاء |
| بياقوتة من رمادي |
| تململ صبح |
| غريب المحيا |
| وعض فؤادي |
| .......... |
| ............ |
| لقد راودتك الأماسي |
| عن شجوها |
| وها أنت ِ قد مسك الوجد |
| مسا ً خفيفا |
| فقامت دمائي |
| تجر عساكرها |
| إلى ساحة من حنين ٍ |
| وتذبحهم واحدا ً |
| واحدا |
| كي لايشير لك القلب |
| أو يعتريك هوى |
| ......... |
| ومابي هوى |
| غير أني زجرت الأساطير |
| إلى من تسمى |
| فلما.. |
| رحاها الذي اسمه الوجد |
| وخط مداها براح الأهلة |
| لانت |
| فكانت |
| كما شاء لها القلب |
| دالية من شجن |
| .............. |
| حشدت جميع المواعيد نحوك ِ |
| ثم سكبت عصير النوافذ |
| فوق الجهات |
| لعلي أراك |
| وأنت ِ التي لا أقول أراها |
| سوى مرة |
| كي أموت |
| .... |
| لقد أن للصبح أن يتليل |
| لليل ِ: أن يتكحل |
| لي: أن أحبك ِ |
| أجمل مما نويت |
| *هامش: الدالية: الساقية |